बिल्लेसुर का हाल आगे लिखा जायगा। इनमें बिल और ईश्वर दोनों के भाव साथ-साथ रहे।
दुलारे आर्यसमाजी थे। बस्तीदीन सुकुल पचास साल की उम्र में एक बेवा ले आये थे। लाने के साल ही भर में उनकी मृत्यु हो गयी।
दुलारे ने उस बेवा को समझाया, पति के रहते भी तीन साल या तीन महीने खबर न लेने पर पत्नी को दूसरा पति चुनने का अधिकार है।
फिर जब बस्तीदीन नहीं रहे तब तीसरे पति के निर्वाचन की उन्हें पूरा स्वतन्त्रता है, और दुलारे उनकी सब तरह सेवा करने को तैयार हैं।
स्त्री को एक अवलम्ब चाहिए। वह राजी हो गयी। लेकिन दुलारे भी साल-भर के अन्दर संसार छोड़कर परलोक सिधार गये।
पत्नी को हमल रह गया था, बच्चा हुआ। अब वह नारद की तरह ललई के दरवाजे बैठा खेला करता है। माँ नहीं रही।
(2)
मन्नी मार्ग दिखा गये थे, बिल्लेसुर पीछे-पीछे चले। गाँव में सुना था, बंगाल का पैसा टिकता है, बम्बई का नहीं, इसलिए बंगाल की तरह देखा।
पास के गाँवों के कुछ लोग बर्दवान के महाराज के यहाँ थे सिपाही अर्दली जमादार।
बिल्लेसुर ने साँस रोककर निश्चय किया, बर्दवान चलेंगे। लेकिन खर्च न था। पर प्रगतिशील को कौन रोकता है ? यद्यपि उस समय बोल्शेविज्य का कुछ ही लोगों ने नाम सुना था, बिल्लेसुर को आज भी नहीं मालूम, फिर भी आइडिया अपने-आप बिल्लेसुर के मस्तिष्क में आ गयी।
वे उसी फटे-हाल कानपुर गये। बिना टिकट कटाये कलकत्तेवाली गाड़ी पर बैठ गये। इलाहाबाद पहुँचते-पहुचँते चेकर ने कान पकड़कर गाड़ी से उतार दिया।
बिल्लेसुर हिन्दुस्तान की जलवायु के अनुसार सविनय कानून भंग कर रहे थे, कुछ बोले नहीं, चुपचाप उतर आये; लेकिन सिद्धान्त नहीं छोड़ा। प्लेटफार्म पर चलते-फिरते समझते बूझते रहे।
जब पूरब जानेवाली दूसरी गाड़ी आयी, बैठ गये। मोगलसराय तक सिर उतारे गये; लेकिन, दो-तीन दिन में चढ़ते-उतरते, बर्दवान पहुँच गये।